राजनीति मे न तो कोई स्थाई रुप से दुश्मन और न ही दोस्त होता है। समय और मुद्दो के साथ् साथ् राजनितीक समीकरण मे फेर वदल होता रह्ता है। ऐसे ही राजनितीक समीकरण फेर वदल के गोल चक्र मे मधेसी दल फसें हुए है। मधेस और मधेसियो का स्थाई राजनितीक मुद्दोको समाधान न होने देने के लिये नेपाल मे कुछ वाम घटक पार्टीयो के बिच चुनावी गठबन्धन हुवा है,जिसका बिरोध वाम पार्टीयो के अन्दर भी हो राहा है।
पहाडे समुदाय द्वारा जो भी पार्टीया अभितक बनी है, चाहे ओ वामपन्थी पार्टीया हो या लोकतान्त्रिक पार्टीया हो , इन लोगो का एक ही मकसद है कि मधेशियो को कैसे राज्य सत्ता से दुर किया जाय तकि कालन्तर मे वो बिलिन हो जाय । यिन पार्टीयो का निती तो देखने मे अच्छा है पर नियत तो एकल सामुदायिक( पहाडे के ओर समर्पित ) है , मधेशियो को राज्य सत्ता से दुर और विलीन करने का इन लोगो का “मुख्य अन्तिरिक अघोषित निती चली आरही है।”
पहाडे समुदाय द्वारा जो भी पार्टीया अभितक बनी है, चाहे ओ वामपन्थी पार्टीया हो या लोकतान्त्रिक पार्टीया हो , इन लोगो का एक ही मकसद है कि मधेशियो को कैसे राज्य सत्ता से दुर किया जाय तकि कालन्तर मे वो बिलिन हो जाय । यिन पार्टीयो का निती तो देखने मे अच्छा है पर नियत तो एकल सामुदायिक( पहाडे के ओर समर्पित ) है , मधेशियो को राज्य सत्ता से दुर और विलीन करने का इन लोगो का “मुख्य अन्तिरिक अघोषित निती चली आरही है।”
जैसे २०६२/६३ के मधेस बिद्रोह का पहला सम्झौता हो, दूसरा मधेस आन्दोलन का सम्झौता हो या तीसरा मधेस आन्दोलन का सम्झौता हो । अखिरकार मधेसीयो को मिला क्या ? सिर्फ गोलि अाैर खुन की हाेली , मधेस भू -भाग काे कैई टुकड़ों मे बाट देना, अनगरिक बना देना, जनसंख्या के अनुसार निर्वाचन क्षेत्र न देना , आदि इत्यादि उपलब्धिया छिन लेने के लिए आन्दोलन हुवा था ,क्या ?
नेपाल एक ऐसा पर-नर्भर राष्ट्र है जहाँ कुछ भी उत्पादन नही होता है। अपने बलबुते पे कुछ नही कर सकता, तभी यहाँ के नेतागण सहयोग जो देश देता उसी का ही अपमान करते नही थकते । जिस देश से हामारी अर्थिक, भासिक, धर्मिक, संस्कृतिक , वैवाहिक और राजनितीक चरीत्र मिलते है , हम उसी से दुश्मन के तरह व्यवहार करते आ रहे है और जिस से हामार कुछ नही मिलता हमारे राष्ट्रिय नेतागण उसी को सब कुछ मानते अा रहे हैं।
देश की दशा और दिशा क्या होगा ? मुझे एक कहवात याद आ गई जो कहवात अगर हमारे राष्ट्रिय नेता अपने आप को आत्मनुसारण करे तो देश का सकारात्मक दिशा मिल सकती है । वो कहवात कुछ ऐसा है ” अपनो पे रहम और गैरो पे सितम” लेकिन ऐ कहवात का हमारे राष्ट्रिय नेतागन कुछ ऐसा उपयोग करने अपनी बहादुर ठान लेते है “अपनो पे सितम और गौरो पे रहम” । नेपाल देश मे रहे सभी जात जाती इस देश के नागरिक है तो सरकारी औवसर से मधेसी ,थारु और मुस्लिम वन्चित क्याें ? अगर ऐसा ही रहेगा तो क्या देश अखण्ड रह सकता है ?
देश की दशा और दिशा क्या होगा ? मुझे एक कहवात याद आ गई जो कहवात अगर हमारे राष्ट्रिय नेता अपने आप को आत्मनुसारण करे तो देश का सकारात्मक दिशा मिल सकती है । वो कहवात कुछ ऐसा है ” अपनो पे रहम और गैरो पे सितम” लेकिन ऐ कहवात का हमारे राष्ट्रिय नेतागन कुछ ऐसा उपयोग करने अपनी बहादुर ठान लेते है “अपनो पे सितम और गौरो पे रहम” । नेपाल देश मे रहे सभी जात जाती इस देश के नागरिक है तो सरकारी औवसर से मधेसी ,थारु और मुस्लिम वन्चित क्याें ? अगर ऐसा ही रहेगा तो क्या देश अखण्ड रह सकता है ?
देशको अखण्ड राख्ने कि जिम्मेवारी किस की ? शासक वर्ग कि शासित जनता ? इसका जवाव कौन देगा ? क्या ऐसा ही शासक वर्ग बहुसंख्यक मधेसि यो,थारुओ और मुसलमानओ को रज्य के मुलधार पे नही समेटा तो ,क्या यहाँ स्पेन के क्याटाेलोनिया और इराक के कुर्दिस्तन जैसा नही होगा ? इस लिए पुरा बिभेद और उपनिवेश मधेसी के उपर लादे गए को हटाए और देश को अखण्ड रखे क्युकी ” बिभेद और अखण्डता एक साथ अस्तित्व मे नही रह सकते ।”
जय देश
जय देश

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