#डा राउत_प्रसंग
"वाद" व्यक्तित्व और शक्ति का उपज होता है । 'वाद' से समाज आगे बढ़ता है या फिर उधोगति जाता है । अग्रगति और उधोगति दोनों धरती पर आज भी मौजूद हैं । उन्नति के लिए मेहनत होती है और अवनति के लिए क्रान्ति/संघर्ष होता है ।
'ज्ञान' और 'व्यवहार' दो भिन्न तत्व है । 'ज्ञान' से व्यक्तित्व विकास होती है, वहीं पर 'व्यवहार' से समाज और राष्ट्र का विकास होता है । जब कोई उच्च शिक्षा हासिल करता है तो उनमें व्यवहारिक परिवर्तन दिखाई देता है और वे समाज एवं राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण बन जाता है । जिस शिक्षा से व्यक्तित्व की 'व्यवहार' में परिवर्तन न हों वह शिक्षा ही व्यर्थ है । वही 'व्यर्थी शिक्षा' लोगों में दुश्चरित्र का निर्माण करता है और समाज में दुष्ट व्यक्तित्व पैदा लेता है । यह दुष्ट ही समाज को ध्वंश और उधोगति की ओर ले जाता है ।
ईतिहास के हर कालखण्ड में दुष्टो का जन्म हुआ है । शुर और अशुर पैदा हुआ है । धर्म और अधर्म का प्रभाव समाज को भुगतना पड़ा है । यह कोई नई बात नहीं है, इतिहास काल से निरन्तर चलता आया है और चलता ही रहेगा ।
व्यक्तित्व का सोंच और उनके व्यवहार से ही हमारे समाज ईतिहास के किसी कालखण्ड में 'वर्ण-विन्यासित' हुआ है । सक्षमता और असक्षमता के जगह उँचे और निचे को स्थान मिला है । अपाङ्गता और सपाङ्गता के जगह निर्बल और बाहुबल को स्थान मिला है । चेतन और अचेतन के स्थान पर चतूर और धनवानों को स्थान मिला है । सामाजिक एकता और सदभाव के जगह ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र तथा कुल-धर्म अनुकुल कर्मकाण्डी आधार पर मानव समाज खण्डित हुआ है । हर सनातनी समाज में ब्राह्मण कुल श्रेष्ठ और शुद्र कुल निकृष्ट रहने का नजिर शताब्दियों पहले से कायम रहा है । आज आप पी.एच.डी. ईञ्जिनियर बन जाओ किन्तु तेरे घरके लोग ही तुम्हारी विज्ञता पर विश्वास नहीं करेंगे । तुम अपनी कुटिया की प्रवेशद्वार उत्तर की ओर रखने की सोचो किन्तु एक ब्राह्मण उसे अशुभ दिशा कह दें तो पलभर में तुम्हारी डिजाईन ? यह अप्रत्यक्ष सामाजिक प्रभाव "मनुवाद" का ही है भले ही मनुवाद का प्रत्यक्ष शासन न हों । फिरभी मनुवाद की सही ज्ञान हमारी प्रेरणा जरूर है ।
हर "वाद" में रहे ईन्हीं विकारो को मानवद्वारा ही मिटाने का प्रयत्न हर युग में हुआ है । मानव समाज में रहे विकार किसी जानवर या अन्य प्राणियों द्वारा नहीं मिटाया है । महान व्यक्तित्व वही हुआ है जो समाज के ईन विकृतियों को हटाने के लिए संघर्ष किया है । भारतीय गुलामी को भारतीय नें मिलकर हटाया है । क्रिश्चियनिटी का सुधार खुद क्रिश्चियन नें किया है भले ही जेशस का प्राण उनके ही समाजद्वारा हरण की गई हो । गान्धी भारत के वापू हैं किन्तु उनकी हत्या बेलायतियों नें नहीं एक आम भारतीय नें ही किया है ।
नेपाली साम्राज्य का ही बात करें तो "ब्राह्मणवाद" विरूद्ध के लड़ाई भी बाबूराम और प्रचण्ड नामके ब्राह्मण प्राणी नें ही लडा है ।
नेपाली साम्राज्य का ही बात करें तो "ब्राह्मणवाद" विरूद्ध के लड़ाई भी बाबूराम और प्रचण्ड नामके ब्राह्मण प्राणी नें ही लडा है ।
मधेशी समाज में रहे गुलामी, मनुवादी विकार, जातिय उत्पीड़न, भाषिक एवं आर्थिक तथा राजनैतिक उत्पीड़न जैसे अन्य विकारों के विरूद्ध डा. सीके का संघर्ष कैसे गलत हो सकता है ? पद, पैसा, पहूँच के लोभी लोग, नेता, संगठन व दल अपने मालिक (शासक और सामन्त) के विरूद्ध ईमान्दार संघर्ष हर्गिज नहीं कर सकते । ऐसे में डा. साहब अकेले ही क्यों हर सचेत मधेशियों को "विकार निर्मलीकरण" अभियान में सामिल होना चाहिए । सभ्य एवं विकसित मधेशी समाज निर्माण के लिए हमारे यहाँ रहे असभ्यता एवं हर विकृतियों को नष्ट करना ही चाहिए ।
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