Sunday, September 2, 2018

मनोहर के हत्यारों को सजा कब मिलेगी ? : रणधीर चौधरी


नेपाल मे बालात्कार की घटनाओ की बढोतरी तो होही रही है । अब ‘कस्टडियल डेथ’ भी बढने लगा है । खबर अनुसार कुछ ही रोज पहले बाँके जिला के एक पुलिस हिरासत मे राम मनोहर यादव नामक युवा को चरम यातना दिया गया । समय मे उपचार न होने के कारण यादव का मौत हो गया । इसी घटना को ले कर काठमाण्डु के माइतीघर मण्डला मे बरिष्ठ पत्रकार, नागरिक समाज एवं लेखक ने इस हत्या का बिरोध जताया और घटना के छानबिन के लिए आवज बुलंद किया ।

परंतु इस घटना मे सनसनी अन्तर्य भी है जिसकी चर्चा लाजमी है । कहा जाता है की, राम मनोहर स्वतन्त्र मधेश गठबंधन से जुडे युवा थे । उनकी गिरफ्तारी से एकरोज पहले एक मधेशवादी दल के मुखिया पश्चिम मधेश गए थे । वहा पर कुछ युवाओ ने उनको प्रजातन्त्रीक मान्यताओ का लुत्फ उठाते काला झण्डा दिखाया और संबिधान संसोधन करबाने मे असफल होने का सच्चाइ उनके सामने रखदिया । उसके बाद सत्ता से प्राप्त शक्ति के उन्माद मे सुरक्षाकर्मी को कह कर गिरफतार करबाया था कुछ युवाओ को । उसी मे से एक था राम मनोहर जिसने सच बोलने का दुस्साहस किया था ।

कैसे कोइ नेता इतना तानाशाह हो सकता है खासकर गणतान्त्रिक देश मे ? कैसे कोई सुरक्षाकर्मी दरिंदगी का चरम सिमा पार कर सकता है ? गंभिर सबाल है ।
नेपाल के संबिधान जो अभी भी सर्वस्विकार्य नही हो पाया है । उसी संबिधान के धारा २२ मे लिखा गया है की किसी भी व्यक्तिको हिरासत मे ले कर यातना नही दिया जा सकता है । और इसी महिने से लागु किया गया फौजदारी संघिता के आधार पे यातना को अपराध के रुप मे परिभाषित किया गया है । तो कानुनी हिसाब से राम मनोहर के उपर अपराधिक हमला किया गया है, आमजन का बुझाई है । देखना यह है की नेपाल के न्यायिक क्षेत्र इस घटणा को कितना संबेदनशिलता से लेती है । हला की जिस तरह से अभीतक इस घटणा को ले कर कोर्ई न्यायिक छानबिना वा चार्जसिट दायर नही किया गया उस्से तो साफ पता चलता है की राम मनोहर नाम का एक ‘मधेशी का मौत’ हुवा है, न की देश के नागरिक का । वास्तव मे कहा जाय तो यह घटणा गणतान्त्रिक नेपाल मे काला धब्बा तो है की और मधेश के राजनिती मे भी इसका असर दिखेगा÷दिखरहा है । मधेश मे उदयमान एक एसी शक्ति जिस्से राज्य को परेशानी है । अब इस घटणा के बाध काठमाण्डु की परेशानी की आयतन बढना अवश्यमभावी है । 

इसी घटणा के बाध नेपाली स्थाइसत्ता का रबैया भी अजिब सा है । स्थाइसत्ता का एक अहम पहलु अर्थात अपने आपको राष्ट्रिय मिडिया कहलाने बाली पत्रिका एवे टेलिविजन के सम्पादको का कठोर और नश्लिय मौनता का जवाव नही । मनोहर की हत्या के बारे मे हरे पत्रिका मे सम्पादकिय आना उनकी नैतिक धर्म माना जाता । परंतु उन्हो ने नैतिकता को तिलांजली देना अपना धर्म ठान लिया । यहाँतक की राष्ट्रिय मानव अधिकार आयोग के औचित्य पे एकबार फिरसे संसयपुण प्रश्नवाचक चिन्ह लगा है । आखिर आयोग की नेपाल मे उपस्थिती का महसुस क्यूँ नही किया जाता है ?

अन्त्य मे, इस घटणा का उचित न्यायिक छानबिन किया जाय । नही तो दण्डहिनता की पराकाष्ठा बढेगी । मधेशवादी दल जो की सत्ता के दलदल मे फसचुके है उनको इस घटणा के बारे मे अनुशनधान करबाने की लिए राज्य पक्ष को दबाब देना चाहिए । कितनी सर्म की बात है अभी तक अपने आप को मधेशवादी दल के रुप मे चित्रित कर रहे नेताओ ने इस दर्दनाक एवं ‘कस्टडियल डेथ’ को ले कर एक बिज्ञ्प्ती तक निकाल्ने का नैतिकता नही दिखाया है । कहाजाता है की अगर किसी नेता मे सत्ता शक्ति का उन्माद चढ जाता है तो वै कुछ नही समझते । अपने नागरिक एवं करदाता को सिफ ‘भोटर’के रुपमे देख्ने लगते है । और कहा यह भी जाता है की शक्ति का उन्माद लम्बे समय नही चलता । खासकर जिस देश मे कानुन को दिन दहाडे उल्लंघन होता हो, नागरिको का हत्या होता हो वहा आमजन एकजुट होने मे वक्त नही लगाते । और एकजुट हो बडे से बडे तानाशाह को उखाड फैँकते है । देख्ना है मनोहर को न्याय मिलता है या नही ?
source: himalini dot com

प्रहरीको लापरबाही र ढिलासुस्तीका कारण राम मनोहरको मृत्यु : थर्ड एलायन्स


काठमाडौं, १७ भाद्र । प्रहरीको लापरवाही र ढिलासुस्तीका कारण समयमा उपचार नभई राम मनोहर यादवको मृत्यु भएको तराई मानव अधिकार रक्षक सञ्जाल (थर्ड एलायन्स)को निष्कर्ष रहेको छ । थर्ड एलायन्सले आइतबार एक विज्ञप्ति जारी सो घटनाप्रति थर्ड एलायन्सको गम्भीर ध्यानाकर्षण भएको जनाएको छ । 

उच्च रक्तचापबाट पीडित यादवलाई प्रहरीले समयमा औषधी उपचार नगरी निकै विलम्बपछि अस्पताल लगेको कारण शुक्रबार उनको उपचारको क्रममा मृत्यु भएको हो । 

उपप्रधान एंव स्वास्थ्य मन्त्री उपेन्द्र यादवको सभामा सहभागी हुन पुगेका स्वतन्त्र मधेश गठबन्धनका पश्चिम क्षेत्रीय संयोजक ईर्फान अहमद शेख, जिल्ला सहसंयोजक हरपाल सिहं सोडी, जिल्ला सदस्य राजीत राम बर्मा र जिल्ला सदस्य राममनोहर यादवलाई जिल्ला समन्वय समिति बर्दियाको सभा हलबाट बाहिर बोलाएर भाद्र ७ गते प्रहरीले नियन्त्रणमा लिएको थियो । पक्राउ परेका गठबन्धनका कार्यकर्ताहरुलाई राजद्रोहको मुद्दामा म्याद थप गरी जिल्ला प्रहरी कार्यालय बर्दियामा राखिएको थियो । 

आफ्नो परिवारबाट उच्च रक्तचापको औषधि पाउने आशमा रहेको यादवका परिवार र साथीहरुलाई दुई दिनसम्म प्रहरीले भेट गर्न नदिएपछि प्रहरीसंँग उच्च रक्त चापको असर कम गर्ने औषधी मागेका थिए तर प्रहरीले निजलाई त्यो औषधि दिएनन् । प्रहरीले औषधी नदिएका कारण गम्भीर टाउको टुखाईबाट ग्रस्त यादव थला परी भदौ १४ विहान ५ बजे अचेत भएको कुरा अनुगमनको क्रममा पाइएको छ ।

भाद्र १४ गते बिहान ५ बजे थुना कक्षमा राम मनोहर यादव अचेत भएको कुरा अन्य थुनुवाहरुले प्रहरीलाई खबर गरे । प्रहरीले यादवलाई उपचारका लागि गुलरिया अस्पतालमा भर्ना गरेपनि उपचार सम्भव नभएपछि थप उपचारका लागि भेरी अञ्चल अस्पताल नेपालगंजमा भर्ना गरेका थिए । भेरीमा आईसीयू खाली नरहेको अस्पतालले बताएपनि सोही अस्पतालका डाक्टर पारस श्रेष्ठले मेडिकल कालेजमा फोन गरी आईसीयूमा यादवलाई भर्ना गर्न आग्रह गरेका थिए । 

तर, प्रहरीले थप उपचारलाई प्राथमिकताका साथ बिरामीलाई आईसीयूमा भर्ना नगरी यादवको परिवारलाई एउटा कागजमा हस्ताक्षर गरेमा मात्र थप उपचारको लागि बाहिर लग्ने भनिरहेका थिए । उपचारमा ढिलाई भएको कारण निजको स्वास्थ्य अवस्था झन् नाजुक बनेको थियो । थर्ड एलायन्स, नेपालगंज कार्यालयले उपचारमा अवरोध नगर्न नगराउन भनी प्रेस विज्ञप्ती जारी गरेपछि प्रहरीले विरामीलाई आइसीयूमा भर्ना गरेको थियो ।

आईसीयूमा यादवलाई भर्ना गरेपनि स्वास्थ्य अवस्थामा खासै सुधार नभएकोले अक्सीजन लगाएर एम्बुलेन्समा राखि थप उपचारको लागि काठमाडौ स्थित त्रि.वि. शिक्षण अस्पतालमा पुगेपछि डाक्टरले निजलाई मृत घोषणा गरेको थियो । 

यता पक्राउ परेकाहरुलाई गैरकानुनी थुनामा राखेको भन्दै उच्च अदालत तुलसीपुर, नेपालगंज इजलासमा बन्दी प्रत्यक्षीकरणको मुद्दा दायर भएको छ । अदालतले ४ जनालाई भाद्र १७ गते अदालतमा उपस्थित गराउन आदेश दिएको छ । 

उक्त सभामा शान्तिपुर्ण तरिकाले सहभागी भएको कारणले प्रहरीले निजलाई गैरकानूनी तरिकाले नियन्त्रणमा लिएको तथा प्रहरीको चरम लापरवाही र ढिला सुस्तीका कारण निजको मृत्यु भएको घटना सम्बन्धमा निष्पक्ष तरिकाले छानबिन तथा अनुसन्धान गरी दोषीलाई कानूनी दायरमा ल्याई कारवाही गर्न तथा पीडित परिवारलाई न्यायोचित क्षतिपुर्ति प्रदान गर्न थर्ड एलायन्सले नेपाल सरकारसँग माग गरेको छ । साथै राष्ट्रिय मानवअधिकार आयोग लगायतका मानवअधिकार संघसंस्थाहरुलाई समेत उक्त घटनाको छानविन गर्न आग्रह गरेको छ ।
source: madheshvani dot com

Monday, April 30, 2018

शासक लोग गुलामों से पहले खून लिया करते थे, आज श्रम और पसिना ले रहे हैं.


हम मधेशी इतने भावूक हैं कि कोई सरकारी अथवा गैर-सरकारी संस्था २-४ गरीवों का घर बना दे तो उनकी गाथा गाते वर्षों नहीं थकते । किसी संस्था के पदाधिकारी एक अभियान के तहत कभी दलितों के घर खाना खाने चले जाय तो भेदभाव मिटने को ठान लेते हैं । डलर की फसल काटने वाले कभी कभार मधू लाकर हमें दे दें तो सारे गम, पीड़ा, उत्पीड़न खत्म होने को मान लेते हैं ।
अरे दोस्त, सैकड़ों मधेशी मजदूर विदेश में काम करते करते दम तोड़ देते हैं, और उनकी लाश आनेसे पहले खबर तक मालूम नहीं होती। अपराध के जूर्म में न्यायालय द्वारा फाँसी की सजा सुनाए गए किसी एक मधेशी का जो उद्धार करते हैं उन्हें हम भगवान मान बैठते हैं । सैकड़ों मधेशी आज भी विदेशों के जेल में बन्द हैं, नेपाली सरकार मौन हैं । हजारों की जीवन जोखिम में है, सरकार लाचार है । मधेशी जनता भावूक ही ईतने हैं कि खुद्रा में काम करनेवालों को भी यश पुरे डलर का कर देते हैं । मधेशियों में रहे ईन्हीं भावूकता की लाभ अवसरवादियों ने सदैव उठाया है और सांसद, मन्त्रियों के पद तक जाने में सफल होता आया है ।
कान्तिपुर पोस्ट लिखते हैं : नेपाली साम्राज्य से विदेशों में जाकर मजदूरी करनेवालों में सबसे आगे मधेशी रहे हैं । मुल्क के भितर मधेशी जनता गुलामी जीवन जीने को बाध्य रहे हैं और बाहर विदेशों में अपना पसिना बहा रहे हैं एवं जीवन गवांने पर मजबूर होते रहे हैं ।
रिपोर्ट में आगे लिखा गया है : नेपाली साम्राज्य से विदेशों में मजदूर भेजने वाले टॉप १० जिलों में से सारे के सारे मधेश के जिला रहे हैं । कान्तिपुर के डेटा देखें : १. धनुषा - ५.१६%, २. झापा - ४.४८%, ३. महोत्तरी - ४.४०%, मोरंग - ४.१०%, सिरहा - ३.९७% । पोष्ट अनुसार सरकारी तथ्यांक कहती है, मधेशी लोगों की बहूलता रहे प्रदेशों में से प्रदेश नं. १(२५.५१%), प्रदेश नं. २(२४.१०%) और प्रदेश नं. ५(१६.२६%) मजदूर भेजने में क्रमशः सबसे आगे रहे हैं ।
आश्चर्य की बात तो यह है कि मजदूर भेजने में शीर्षस्थ मधेश के १० जिलों से ३४.६४% मजदूर विदेश में अपना खून पसीना बहा रहे हैं । वहीं पर बाँकी रहे ६७ जिलों से केवल ६५.३६% मजदूर विदेश में कार्यरत रहे हैं ।
सभी जान रहे हैं और देख भी रहे हैं, नेपाली साम्राज्य के भीतर मधेशी बहुत पिछे रहे हैं । राजनीति, अर्थ, रोजगारी, बेपार, शिक्षा, सत्ता, सेना हर क्षेत्र में नेपालियों से बहुत पिछे हैं । किन्तु विदेश जाने और पसिने बहाकर नेपाली साम्राज्य को लगान भरने में सबसे आगे रहे हैं ।
सन् १९४७ से पहले भारत में भी यही हुआ करता था । खून और लगान भारतीय लोग देते थे परंतु उसपर ऐशोआराम अँग्रेजी हुकूमत के लोग फरमाते थे । ठिक उसी प्रकार वही जूल्म और दूर्व्यवहार आज यहाँ नेपाली राज में फिरंगियों के द्वारा हम मधेशियों पर किया जा रहा हैं । खेतों में काम करके उन्हें अनाज हम मधेशी देते हैं, दाम वो लगाते हैं। वोर्डर पर गस्ती मधेशी लोग लगाते हैं, भन्सार राजस्व उठाकर वो लोग ले जातें हैं । जल, जंगल, जमीन पर पसिने हम लगाते हैं लेकिन उसका उपज नेपाली सेना, पुलिस और कर्मचारी खाते हैं । लगान और मजदूरी हम देतें हैं किन्तु मुल्क पर हुकूमत फिरंगी लोग चलाते हैं । वर्षों से होता यही रहा है ।
कहते हैं, जब जागा तभी सबेरा । हमें अब जागना ही होगा । भावना, भावूकता और भ्रम से बाहर निकलना ही होगा । २ सौ वर्षों से हमपर हो रहे औपनिवेशिक शासन को अब खत्म करना होगा एवं गुलामी, रंगभेद और नेपाली शासन को बिराम देना ही होगा । ईक्का दुक्का भावूक कार्यों से मधेशी जनता को दिगभ्रमित करने और उसके सहारे नेता, मन्त्री का कुर्सी प्राप्त करने की नाटक अब हर जगह, हर क्षेत्र में बन्द हो । हम सांसद, मन्त्री जरूर बनेंगे किन्तु उससे पहले मधेश माता को बिमारियों से मुक्त करना होगा... और,
हमारे पास रहे सारे बिमारियों को एक ही दवा है :
Shyam Sundar Mandal ko fb bat

Tuesday, February 27, 2018

उपनिवेशीकरणमा भाषाको भूमिका निकै शक्तिशाली हुन्छ : न्गुगी वा थ्योङ्गो


विश्वविख्यात साहित्यकार न्गुगी वा थ्योङ्गोकेही दिनयता भारतमा छन् । भारतको कोलकाता हुँदै दिल्ली आइपुगेका उनीसँग हालै दिल्लीमा छलफल गर्ने मौका जुर्यो । ‘डि क्लोनाइजिङ द माइन्ड ः दि पोलिटिक्स अफ लेङ्वेज इन अफ्रिकन लिटरेचर’ नामक पुस्तकबाट विश्वभरिको बौद्धिक जगतमा तरङ्ग पैदा गर्ने न्गुगीको जन्म सन् १९३८ मा केन्यामा भएको हो ।
उनको वास्तविक नाम जेम्स न्गुगी हो । आरम्भका उनका रचनाहरू जेम्स न्गुगी नाममै प्रकाशित छन् । तर हालका दिनहरूमा उनले न्गुगी वा थ्योङ्गोको नामबाट कलम चलाउँछन् । सन् १९७७ मा उनले लेखेको र मञ्चन गरेको गिकुयु भाषाको नाटक ‘न्गाहिका न्दिन्दा’ (आई विल मैरी भ्यान आई वाट) का लागि उनलाई तत्कालीन सरकारले पक्राउ गर्यो । माक्र्सवादी विचारबाट प्रेरित भएर लेखेकै आधारमा सरकारद्वारा जेलको चिसो छिँडीमा बस्न बाध्य बनाइएका लेखक न्गुगी सन् १९७८ मा जेलबाट रिहा भएलगत्तै आफ्नो देशमा बस्नसक्ने अवस्था नभएका कारण निर्वासित हुनु पर्यो ।
निर्वासित जीवन बिताउन बाध्य भएलगत्तै उनी लन्डनमा शरण लिन पुगे र पछि अमेरिका गएर बस्न थाले । निर्वाशित भएको २२ वर्षपछि केन्या जाने अनुमति पाएका न्गुगी वा थ्योङ्गोले आफ्नो रचनाकर्म अङ्ग्रेजीमा भाषामा आरम्भ गरे पनि पछि गिकुयु भाषामा लेख्न थालेको बारे उनले भनेका छन््– ‘भाषाको अर्थ हो त्यहाँसम्मको पहुँच । लेखकले जब आफ्नो रचनाक्रमका लागि भाषाको चयन गर्छ, तब उसले आफ्नो रचना अथवा कलाको पनि सीमाङ्कन गर्छ । आफ्नो कामलाई जनताको कुन तप्कामा उसले पुर्याउन चाहेको हो अथवा छ, त्यसको निर्धारण उसले रोजेको भाषाले स्पष्ट हुन्छ ।’
न्गुगीसित सोध्नका लागि धेरै जिज्ञासाहरू हुँदाहुँदै पनि उनको समय अभाव एवम् स्वास्थ्यका कारणले छोटो समय भए पनि हामीले उनीसँग छलफल गर्यौँ । ८० वर्षको उमेर भए पनि आफ्नो लेखनकर्ममा अझै पनि सक्रिय रहेका उनीसँग उक्त छलफलमा भारतका वरिष्ट कवि मङ्गलेश डबराल, वरिष्ठ पत्रकार आनन्दस्वरूप वर्मा, गार्गी प्रकाशनका दिगम्बर, पारिजात, पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव र अध्ययता रेयाजुल हक सहित म सहभागी थिएँ । 
न्गुगी वा थ्योङ्गोसँग छलफलमा उठेका केही महत्वपूर्ण विचारहरू हामीले पाठकका लागि महत्वपूर्ण हुने ठानेर त्यसलाई अन्तरवार्ता शैलीमा प्रस्तुत गरेका छौँ ।– विष्णु शर्मा
तपाईंले केन्याका जनताको साम्राज्यवाद विरोधी र पछिका सङ्घर्षहरूलाई आफ्नो लेखनको केन्द्रीय विषय बनाउनुभएको छ । के यो एउटा सचेत निर्णय हो ?
रचनाकर्म अथवा सृजनलाई सङ्घर्षको अर्को मोर्चाका रूपमा हेर्नुपर्छ । सन् १९५९ मा मैले लेख्न आरम्भ गरेँ र सन् १९६१ मैले ‘द रिभर बिटविन’ पूरा गरेँ । कलेजको अध्ययन पूरा गर्ने क्रममा नै मेरा दुईवटा उपन्यासका पाण्डुलिपि पूरा भइसकेका थिए । साथै दुईवटा नाटकहरू मञ्चन भइसकेका थिए । 
तिनताका म एउटा साप्ताहिक पत्रिकाका लागि नियमित स्तम्भ लेखिरहेको थिएँ । मलाई लाग्छ, यो सबै कुरा त्यस बेलाको सङ्घर्षका कारण सम्भव भयो । हामीहरू आफैले आफूलाई समाजको प्रबुद्ध अग्रदस्ताको रूपमा हेर्ने गथ्र्यौँ । राजनीतिक रूपमा त्यतिबेला केन्यामा ‘मेड इन केन्या’को नारा घन्किरहेको थियो । 
हामी नयाँ समाजको निर्माणमा उत्साहकासाथ सामेल भयौँ । हामीहरूलाई हामी पनि केही रचना र निर्माण गर्न सक्छौँ भन्ने लाग्थ्यो । त्यो भनेको सङ्घर्षको चरण थियो । हाम्रो सोच सही थियो भन्ने कुराको आभास हामीलाई त्यसबेला भयो जति बेला हामीले केही निर्माण गर्न सक्छौँ भन्ने कुरा हामीलाई हाम्रो समाजको सङ्घर्षले सिकायो । त्यसबेला हाम्रो अभियान नै थियो– ‘केन्यामा बनाउँ, केन्याको किनौँ’ । 
त्यो उपनिवेशवादबाट मुक्तिपछिको कुरा हो ? र अन्य समाजजस्तै आत्मनिर्भर हुने सपनाको युग पनि थियो होइन त ?
यहाँ हामी सबैले के कुरा बुझ्नुपर्ने हुन्छ भने अन्य देशहरू जस्तै अफ्रिकाको उपनिवेशीकरण यथार्थमा उसको संसाधनको उपनिवेशीकरण हो । जसले जे भने पनि एकले अर्कोलाई उपनिवेशन बनाउने कुरा कुनै खालको सौन्दर्य मूल्यको अभिव्यक्ति अथवा सदिच्छा होइन । बरू मनुष्यहरूको उपनिवेशीकरण उनीहरूको संसाधनलाई आफ्नो कब्जामा लिनका लागि हुन्छ । यो एक प्रकारको लुटको स्वरूप हो । 
त्यसो भए ‘मेड इन केन्या’ एक प्रकारले उपनिवेशवादको प्रतिकारका रूपमा जन्मिएको थियो ?
हो, १९६० मा केन्याका जनताले के बुझे भने, लौ अब हामीले आफ्नै संसाधनमाथि नियन्त्रण गर्न सक्छौँ र त्यस प्रक्रियामा उपनिवेशवादी देशहरू अथवा पश्चिमको हार हुनु स्वाभाविक हो । त्यो बेला हाम्रो मूल नारा राष्ट्रीयकरण थियो । हामीले भारत, ल्याटिन अमेरिका, बाङ्डुङ सम्मेलनलगायतबाट प्रेरणा लिँदै राष्ट्रीयकरणको कुरा गरिरहेका थियौँ । 

यो सबै उतार–चढाव हुँदै गर्दा पश्चिमले हेरिरहेको थियो । पश्चिमको समृद्धि यी देशहरूका संसाधनहरूमा पूर्णरूपले निर्भर थियो । त्यो बेलाको विचार नै राष्ट्रीयकरण थियो । केन्यामा हाम्रो नारा तीन रोगहरूबाट मुक्त हुनुपर्छ भन्ने थियो । जस्तै– अज्ञानता, गरिबी र रोग । यी तीन कुरा सबै नीतिहरूको केन्द्रमा थिए । युरोपले यी सबै कुरालाई नियाली रहेको थियो र १९७० मा युरोपले नयाँ नारा लिएर आयो जसलाई निजीकरण भनियो । 
के भन्न थालियो भने, सरकारको अवधारणा नराम्रो कुरा हो । सरकारले चलाएका संस्थाहरूको अवस्था सारै नराम्रो छ । निजीकरणलाई धेरै प्रचार गर्न थालियो । केन्यामा कपडा र अन्य कारखानाहरूलाई
निजीकरण गरियो र अफ्रिकाका अन्य देशहरूमा पनि सोही नीतिलाई लाद्दै निजीकरण गरियो । 
आज हामीले त्यसका परिणामहरू भोगिरहेका छौँ । त्यति नै बेला शिक्षा र स्वास्थ्यको निजीकरणको कुरा पनि गरियो । कुनै पनि कुरा निःशुल्क नहुने भनियो । सरकारले जागिर दिन हुन्न भनियो । त्यो अवस्थामा अतिरिक्त श्रम कता खप्ने त ? बुद्धिजीवीहरूलाई एनजीओ अथवा गैरसरकारी संस्थाहरूमा छिराउने र तीनको बौद्धिकतामा ल्याउन लगाउने कामको सुरुवात पनि त्यति नै बेलादेखि हुन थालेको हो । 
आजभोलि न्यूनतम सरकारको धेरै कुरा हुने गर्छ नि, त्यसलाई कसरी हेर्ने ?
सरकारलाई कसरी बुझनुपर्छ भने यो एक प्रकारको कम्पनी हो । जसमा हाम्रो सेयर छ । यो हाम्रो भोटले निर्माण भएको कम्पनी हो । यो कम्पनी जस्तो भए पनि हाम्रो हो तर निजीकरणका पक्षधरहरूले हामीलाई आफ्नै कम्पनीमा अविश्वास गर्न सिकाए । 
उनीहरूले हामीलाई बरु यस्तो कम्पनीमा विश्वास गर्नुपर्छ भने जसमा हाम्रो कुनै दखल नै हुन सक्दैन । हामीले यो कुरा ठीक होइन भन्न सक्नुपर्छ । लेखकका रूपमा हामीले के कुरा पनि भन्न सक्नुपर्छ भने असामानता साधारण कुरा होइन र यसलाई आम कुरा भन्न मिल्दैन । हामीले सरकारको अवधारणामाथि विश्वास गर्नुपर्छ । 
भाषाको सन्दर्भ लिऊँ, तपाईंले अङ्ग्रेजीमा लेख्न छोड्नुभयो । अङ्ग्रेजीमा लेख्दा धेरै जनमानसले तपाईंका कुरा बुझने अवसर पाउँथे होला होइन र ? यसबारे थप स्पष्ट पार्नुहुन्छ कि ?
यो प्रश्न पनि एक प्रकारको असामान्यतालाई सामान्य बनाउने कुरा हो । बारम्बार मलाई तपाईं अङ्ग्रेजीमा किन लेख्नुहुन्न भनेर सोध्ने गरिन्छ । म भन्छु, यो प्रश्न गैरपश्चिमी लेखकहरूलाई मात्र कनि सोध्ने गरिन्छ ? कुनै फ्राँसिसी, अङ्ग्रेजी अथवा पोलिस भाषाका लेखकहरूलाई यो प्रश्न किन सोधिन्न ? मैले भाषा रोझनुको अर्थ हो केन्याका श्रमिकहरूले मेरो लेखन पढ्न सकून । अन्यले पनि अनुवादमार्फत यसको अध्ययन गर्न सक्छन् ।  
उपनिवेशीकरणमा भाषाको कस्तो भूमिका हुन्छ ? उपनिवेशवादी शक्तिहरूले गुलाम बनाउन भाषाको प्रयोग गर्छन् भनेर तपाईंले भन्नुभएको छ, यसलाई प्रष्ट पार्नुहुन्छ कि ?
उपनिवेशीकरणमा भाषाको भूमिका निकै शक्तिशाली हुन्छ । जब जनताको भाषामाथि नियन्त्रण हुन्छ तब ती जनताका धेरै कुराहरूमा नियन्त्रण कामय गर्न सजिलो हुन्छ । समाजको ढाँचा ‘हाइरार्की’मा अडिएको हुन्छ । समाजको त्यो ‘हाइरार्की’लाई भाषाको माध्यमद्वारा सुदृढ गरिन्छ । सत्ताधारी वर्गको भाषालाई आदर्श भाषाका रूपमा प्रस्तुत गरिन्छ र धेरै मानिसलाई त्यो भाषासम्मको पहुँच हुनबाट रोक्न अवरोधहरू खाडा गरिन्छ । यसैलाई हामीले भाषाको साम्राज्य भन्न सक्छाँै । शासकहरूले यसैका माध्यमबाट शोषण र आफ्नो लुट कायम राख्छन् ।

sorce: ratopati dot com

Thursday, February 15, 2018

‘राज्य विप्लवका’ चार मुद्दामा सिके राउतले विषेश अदालतबाट सफाई पाए


काठमाडौं, ३ फागुन । राष्ट्रिय अखण्डताविरोधी गतिविधी गरेको आरोपमा राज्य विप्लवको मुद्दा चलाइएका चन्द्रकान्त राउत(सिके) लाई विशेष अदालतले सफाई दिएको छ।
यसअघि सोही मुद्दामा प्रमाण अभाव र इन्कारी बयान दिएर छुटेका राउतविरूद्ध गत माघमा प्रहरीले स–प्रमाण मुद्दा दर्ता गरेको थियो। विशेष अदालतका न्यायाधीश रत्नबहादुर बागचन्द, चण्डीराज ढकाल र प्रमोद वैद्य श्रेष्ठको इजलासले सिके राउतविरुद्धका चारथान मुद्दामा सफाई दिने फैसला गरेका हुन्।
राउतसहित १७ जनाविरुद्ध एकथान र अन्य तीनमा राउतसहित चारजनालाई प्रतिवादी बनाएर मुद्दा लगिएको थियो। अदालतले चारै थान मुद्दामा राउतसहित सबै प्रतिवादीलाई सफाई दिएको हो। अदालतका श्रेष्तेदार भीमकुमार श्रेष्ठले राउतविरुद्धका चारै थान मुद्दामा सफाईको फैसला भएको नेपालखबरलाइ बताए। फरक फरक स्थानमा भएका घटनालाई लिएर दर्ता भएका राज्य विप्लबका मुद्दामा राउतसहित सबै प्रतिवादीले सफाई पाएको बताए।
जिल्ला प्रहरी कार्यालय सिरहाले राज्यविरुद्धको अपराधसम्बन्धी अभियोगमा राउतलाई राष्ट्रिय अखण्डता विरोधी भाषण गरेको १५ दिनपछि पक्राउ गरेर कारवाही थालेको थियो। राउतले उपस्थितमात्र हुने जनाउ दिएको गत माघ ५ को कार्यक्रममा स्वराज मधेश भन्दै देशबाट मधेश अलगगर्ने सार्वजनिक अभिब्यक्ति दिएका थिए। प्रहरीले राउतलाई जनकपुरस्थित डेराबाट पक्राउ गरेर कारवाही थालिएको थियो।
मुद्दामा सफाइ पाएसँगै राउतले सामाजिक सञ्जालबाट प्रतिक्रिया दिँदै सत्यको विजय भएको दाबी गरेका छन्।
साभारः नेपाल खबरबाट

Monday, February 5, 2018

थारु आदिवासीलाई कुनै एक प्रदेश को प्रमुख बनाउने श्रेय कसले लिने ? – सी.के. राउत


एउटा प्रदेश प्रमुख #थारु आदिवासीलाई बनाउने श्रेय कसले लिने ? मौका न गुमाऔं।
प्रदेश नं ५ मा न सके, प्रदेश नं २ को प्रदेश प्रमुख फिर्ता बोलाई कैलाली वा दांगका थारु महिलालाई बनाऔं।
नेपाली औपनिवेशिक शासनले सबैभन्दा बढी उत्पीडित भएका मध्ये पर्छन् थारु। उनीहरुको जमीन मात्रै खोसिएन, उनीहरुलाई कमैया कमलरी हलिया बनाएर २१औं शताब्दी सम्म पनि शोषण जारी नै राखियो। राणाकाल देखि नै पटक-पटक आन्दोलनमा उनीहरुले बलिदानी दिइ राखे, यहाँ सम्म कि माओवादी आन्दोलनमा उनीहरु शहादत दिन अग्रपंक्तिमा देखिए, हजारौं हजार थारुले बलिदानी दिए।
सैयौं वर्षदेखि यसरी दासत्वमा पिल्सेर वाँच्न विवश थारुलाई अधिकार मात्रै हैन, सम्मानको पनि उतिकै आवश्कता छ, आफ्नोपनको न्यानोको पनि उत्तिकै आवश्कता छ। मधेश आन्दोलन-३ को शुरुवात् पनि उनीहरुकै विरोधबाट शुरु भएको थियो, तर दुर्भाग्य टीकापुर घटना देखि रेशम चौधरीजी निर्वाचित हुँदा सम्म पनि उनीहरुलाई एक्लै-एक्लै बेसहारा छाडियो, टीकापुर वा अन्य क्षेत्रका थारुहरुको घाऊमा मलहम लगाउन समेत मधेशी नेताहरु अगाडि बढेनन्।
तसर्थ यस पृष्टभूमिमा प्रदेश नं २ वा ५ को एउटा प्रदेश प्रमुख थारु आदिवासी, सके महिलालाई, बनाउँदा अति उत्तम हुनेथ्यो। अहिले पनि समय पूरै विति सकेको छैन, अहिले पनि एउटा प्रदेशमा अहिलेको प्रदेश प्रमुखलाई फिर्ता बोलाएर गर्न सकिन्छ। प्रदेश नं ५ मा गर्न न सके, प्रदेश नं २ कै प्रदेश प्रमुख
पश्चिमी जिल्ला (कैलाली, दांग आदि) का थारु आदिवासीलाई बनाउँदा झन् सकारात्मक संदेश दिनेछ।
यो मौका न गुमाऔं, मधेशी नेताहरुसँग हाम्रो आग्रह छ। अन्यथा १-२ महिनामा आउने सरकारले त्यसै पनि प्रदेश प्रमुख बदल्ने नै छ।
डा. सी. के. राउत को फेसबुकबाट साभार |
२२ माघ २०७४, सोमबार १०:५० मा प्रकाशित

Friday, January 26, 2018

सभ्य समाज निर्माण का अभिलाषा रखते हैं तो असभ्यता, अन्याय, विकार आदि हटाना ही होगा... - ई. श्याम सुन्दर मण्डल


#डा राउत_प्रसंग
"वाद" व्यक्तित्व और शक्ति का उपज होता है । 'वाद' से समाज आगे बढ़ता है या फिर उधोगति जाता है । अग्रगति और उधोगति दोनों धरती पर आज भी मौजूद हैं । उन्नति के लिए मेहनत होती है और अवनति के लिए क्रान्ति/संघर्ष होता है ।
'ज्ञान' और 'व्यवहार' दो भिन्न तत्व है । 'ज्ञान' से व्यक्तित्व विकास होती है, वहीं पर 'व्यवहार' से समाज और राष्ट्र का विकास होता है । जब कोई उच्च शिक्षा हासिल करता है तो उनमें व्यवहारिक परिवर्तन दिखाई देता है और वे समाज एवं राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण बन जाता है । जिस शिक्षा से व्यक्तित्व की 'व्यवहार' में परिवर्तन न हों वह शिक्षा ही व्यर्थ है । वही 'व्यर्थी शिक्षा' लोगों में दुश्चरित्र का निर्माण करता है और समाज में दुष्ट व्यक्तित्व पैदा लेता है । यह दुष्ट ही समाज को ध्वंश और उधोगति की ओर ले जाता है ।
ईतिहास के हर कालखण्ड में दुष्टो का जन्म हुआ है । शुर और अशुर पैदा हुआ है । धर्म और अधर्म का प्रभाव समाज को भुगतना पड़ा है । यह कोई नई बात नहीं है, इतिहास काल से निरन्तर चलता आया है और चलता ही रहेगा ।
व्यक्तित्व का सोंच और उनके व्यवहार से ही हमारे समाज ईतिहास के किसी कालखण्ड में 'वर्ण-विन्यासित' हुआ है । सक्षमता और असक्षमता के जगह उँचे और निचे को स्थान मिला है । अपाङ्गता और सपाङ्गता के जगह निर्बल और बाहुबल को स्थान मिला है । चेतन और अचेतन के स्थान पर चतूर और धनवानों को स्थान मिला है । सामाजिक एकता और सदभाव के जगह ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र तथा कुल-धर्म अनुकुल कर्मकाण्डी आधार पर मानव समाज खण्डित हुआ है । हर सनातनी समाज में ब्राह्मण कुल श्रेष्ठ और शुद्र कुल निकृष्ट रहने का नजिर शताब्दियों पहले से कायम रहा है । आज आप पी.एच.डी. ईञ्जिनियर बन जाओ किन्तु तेरे घरके लोग ही तुम्हारी विज्ञता पर विश्वास नहीं करेंगे । तुम अपनी कुटिया की प्रवेशद्वार उत्तर की ओर रखने की सोचो किन्तु एक ब्राह्मण उसे अशुभ दिशा कह दें तो पलभर में तुम्हारी डिजाईन ? यह अप्रत्यक्ष सामाजिक प्रभाव "मनुवाद" का ही है भले ही मनुवाद का प्रत्यक्ष शासन न हों । फिरभी मनुवाद की सही ज्ञान हमारी प्रेरणा जरूर है ।
हर "वाद" में रहे ईन्हीं विकारो को मानवद्वारा ही मिटाने का प्रयत्न हर युग में हुआ है । मानव समाज में रहे विकार किसी जानवर या अन्य प्राणियों द्वारा नहीं मिटाया है । महान व्यक्तित्व वही हुआ है जो समाज के ईन विकृतियों को हटाने के लिए संघर्ष किया है । भारतीय गुलामी को भारतीय नें मिलकर हटाया है । क्रिश्चियनिटी का सुधार खुद क्रिश्चियन नें किया है भले ही जेशस का प्राण उनके ही समाजद्वारा हरण की गई हो । गान्धी भारत के वापू हैं किन्तु उनकी हत्या बेलायतियों नें नहीं एक आम भारतीय नें ही किया है ।
नेपाली साम्राज्य का ही बात करें तो "ब्राह्मणवाद" विरूद्ध के लड़ाई भी बाबूराम और प्रचण्ड नामके ब्राह्मण प्राणी नें ही लडा है ।
मधेशी समाज में रहे गुलामी, मनुवादी विकार, जातिय उत्पीड़न, भाषिक एवं आर्थिक तथा राजनैतिक उत्पीड़न जैसे अन्य विकारों के विरूद्ध डा. सीके का संघर्ष कैसे गलत हो सकता है ? पद, पैसा, पहूँच के लोभी लोग, नेता, संगठन व दल अपने मालिक (शासक और सामन्त) के विरूद्ध ईमान्दार संघर्ष हर्गिज नहीं कर सकते । ऐसे में डा. साहब अकेले ही क्यों हर सचेत मधेशियों को "विकार निर्मलीकरण" अभियान में सामिल होना चाहिए । सभ्य एवं विकसित मधेशी समाज निर्माण के लिए हमारे यहाँ रहे असभ्यता एवं हर विकृतियों को नष्ट करना ही चाहिए ।

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